Sunday 21 December 2014

बाज़ी तुम्हारे अस्तित्व पर

कभी कभी झूलने लगता मन
होने या न होने के बीच
तुम्हारे अस्तित्व के।
तर्क की कसौटी
उठाती कई प्रश्न चिन्ह
अस्तित्व पर ईश्वर के।
लेकिन नहीं देती साथ
आस्था किसी तर्क का
और पाती तुम्हें साथ
हर एक पल।

क्या है सत्य?
तुम्हारे न होने का तर्क
या आस्था तुम्हारे होने की?

सोचता हूँ लगा दूँ बाज़ी
अस्तित्व पर तुम्हारे होने की,
अगर जीत जाता हूँ,
पाउँगा वह सब कुछ
जो है अतुलनीय
और नहीं रहती कोई आकांक्षा
जिसको पाने के बाद।
और अगर हार जाता हूँ
नहीं होगा कोई पश्चाताप
क्यों कि नहीं खोया कुछ भी
मैंने बाज़ी हार कर।

क्या हानि है लगाने पर बाज़ी
एक बार अपनी आस्था पर
तुम्हारे अस्तित्व के होने पर?

...कैलाश शर्मा 

Saturday 22 November 2014

'मैं'

'मैं' हूँ नहीं यह शरीर
'मैं' हूँ जीवन सीमाओं से परे,
मुक्त बंधनों से शरीर के।
'मैं' हूँ अजन्मा
न ही कभी हुई मृत्यु,
'मैं' हूँ सदैव मुक्त समय से
न मेरा आदि है न अंत।

'मैं' हूँ सच्चा मार्गदर्शक
जो भी थामता मेरा हाथ
नहीं होता कभी पथ भ्रष्ट,
लेकिन देता अधिकार चुनने का
मार्ग अपने विवेकानुसार,
टोकता हूँ अवश्य
पर नहीं रोकता निर्णय लेने से,
'मैं' हूँ सर्व-नियंता, सर्व-ज्ञाता
लेकिन बहुत दूर अहम् से।

...कैलाश शर्मा 

Friday 31 October 2014

चुनौतियाँ

कठिनाइयाँ नहीं बाधायें राह की,
चुनौतियां देती प्रेरणा और जोश
मंज़िल को पाने की,
लगती हैं चुनौतियाँ कठिन
जब होता सामना उनसे,
लेकिन हो जातीं कितनी छोटी
उन पर विजय के बाद,
चलती गाड़ी से दिखते 
पेड़ की तरह,
लगता विशाल नज़दीक आने पर
लेकिन दिखता कितना छोटा
पीछे छूट जाने पर।


...कैलाश शर्मा 

Monday 20 October 2014

अप्प दीपो भव

बुद्ध नहीं एक व्यक्ति विशेष
बुद्ध है बोध अपने "मैं" का
एक मार्ग पहचानने का अपने आप को,
नहीं करा सकता कोई और
पहचान मेरी मेरे "मैं" से,
मिटाना होगा स्वयं ही
अँधेरा अपने अंतस का,
'अप्प दीपो भव' नहीं केवल एक सूत्र
यह है एक शाश्वत सत्य,
अनंत प्रकाश को जीवन में 
बनना होता अपना दीप स्वयं ही,
किसी अन्य का दीपक
कर सकता रोशन राह
केवल कुछ दूर तक,
फ़िर अनंत अंधकार और भटकाव
शेष जीवन राह में।

जलाओ दीपक अपने अंतस में
समझो अर्थ अपने होने का,
बढ़ो उस राह जो हो आलोकित
स्व-प्रज्वलित ज्ञान दीप से।

...कैलाश शर्मा 

Thursday 18 September 2014

मनवा न लागत है तुम बिन

मनवा न लागत है तुम बिन.
जब से श्याम गए हो ब्रज से, तड़पत है हिय निस दिन. 
सूना लागत बंसीवट का तट, न लागत मन तुम बिन.  
पीत कपोल भये हैं कारे, अश्रु बहें नयनन से निस दिन.   
अटके प्रान गले में अब तक, आस दरस की निस दिन.      
वृंदा सूख गयी है वन में, यमुना तट उदास है तुम बिन.      
आ जाओ अब तो तुम कान्हा, प्यासा मन है तुम बिन.

...कैलाश शर्मा 

Tuesday 26 August 2014

आधा अधूरा सत्य

ढो रहे हैं
अपने अपने कंधों पर
अपना अपना सत्य
अनज़ान सम्पूर्ण सत्य से।

प्रत्येक का अपना सत्य 
समय, परिस्थिति, सोच अनुसार 
जो बन जाता उसका सम्पूर्ण सत्य
और बाँध देता उसकी सोच
अपने चारों ओर जीवन भर।

प्रतिज्ञाबद्ध भीष्म का 
अपनी प्रतिज्ञा का सच
जो कर देता आँखें बंद 
अन्य सभी सच से,
दुर्योधन को अपना अपमान
बन जाता अपना सच
करने को अपमान द्रोपदी का,
अपने अपमान का प्रतिशोध
द्रोपदी का अपना सच,
अहसानों की जंजीरों में आबद्ध 
द्रोणाचार्य, कर्ण का अपना सच,
सम्पूर्ण सच से बाँध पट्टी आँखों पर
उतरे सभी महाभारत युद्ध में
अपने अपने सच को साथ लेकर।

कितना सापेक्ष हो गया है सच 
क्यों बंधे रहते केवल अपने सच से,
क्यों बाँध लेते पट्टी आँखों पर
जब खड़ा होता सम्पूर्ण सत्य सामने।

सत्य केवल सत्य होता है
कोई आधा अधूरा नहीं
सापेक्षता से कोसों दूर,
काश स्वीकार कर पाते  
अस्तित्व सम्पूर्ण सत्य का
टल जाते कितने महाभारत जीवन में।

....© कैलाश शर्मा 

Tuesday 12 August 2014

तलाश सम्पूर्ण की

टुकड़े टुकड़े संचित करते जीवन में
भूल जाते अस्तित्व सम्पूर्ण का,
देखते केवल एक अंश जीवन का
मान लेते उसको ही सम्पूर्ण सत्य
वही बन जाता हमारा
स्वभाव, प्रकृति, अहम् और ‘मैं’.

नहीं होता परिचय सम्पूर्ण से
केवल बचपने प्रयासों द्वारा,
जगानी होती बाल सुलभ उत्सुकता,
बचपना है एक अज्ञानता
एक भय नवीनता से,
बचपन है उत्सुकता और मासूमियत
जिज्ञासा जानने की प्रति पल
जो कुछ आता नवीन राह में,
नहीं ग्रसित पूर्वाग्रहों 
पसंद नापसंद, भय व विचारों से,
देखता हर पल व वस्तु में
आनंद का असीम स्रोत.

जैसे जैसे बढ़ते आगे जीवन में
अहंकार जनित ‘मैं’,
घटनाएँ, विचार और अर्जित ज्ञान
आवृत कर देता मासूमियत बचपन की,
देखने लगते वर्तमान को
भूतकाल के दर्पण में,
भूल जाते अनुभव करना 
प्रत्यक्ष को बचपन की दृष्टि से.

जीवन एक गहन रहस्य
अपरिचित दुरूह राहें
अनिश्चित व अज्ञात गंतव्य,  
बचपन की दृष्टि 
है केवल संवेदनशीलता
अनभिज्ञ भावनाओं
व ‘मैं’ के मायाजाल से
जो करा सकती परिचय
हमारे अस्तित्व के
सम्पूर्ण सत्य से.


....कैलाश शर्मा 

Thursday 24 July 2014

दोहे

मन चाहा कब होत है, काहे होत उदास,
उस पर सब कुछ छोड़ दे, पूरी होगी आस.
                   ***
मन की मन ने जब करी, पछतावे हर बार,
करता सोच विचार के, उसका है संसार.
                 ***
चलते चलते थक गया, अब तो ले विश्राम,
माया ममता छोड़ कर, ले ले हरि का नाम.
                 ***
किसका ढूंढे आसरा, किस पर कर विश्वास,
सब मतलब के साथ हैं, उस पर रख विश्वास.
                 ***
क्या कुछ लाया साथ में, क्या कुछ लेकर जाय, 
लेखा जोखा कर्म का, साथ तेरे रह जाय.
                ***
जीवन में कीया नहीं, कभी न कोई काम,
कैसे समझेंगे भला, महनत का क्या दाम.
                ***
मन चंचल है पवन सम, जित चाहे उड़ जाय,
संयम की रस्सी बने, तब यह बस में आय.
               ***
धन से कब है मन भरा, कितना भी आ जाय,
जब आवे संतोष धन, सब धन है मिल जाय.
              ***
अपने दुख से सब दुखी, दूजों का दुख देख,
अपना दुख कुछ भी नहीं, उनके दुख को देख.
              ***
...कैलाश शर्मा   

Friday 4 July 2014

खोल दो सभी खिड़कियाँ

मत खींचो लक़ीरें 
अपने चारों ओर
निकलो बाहर 
अपने बनाये घेरे से.

खोल दो सभी खिड़कियाँ 
अपने अंतस की,
आने दो ताज़ा हवा 
समग्र विचारों की,
अन्यथा सीमित सोच से
रह जाओगे घुट कर 
अपने बनाये घेरे में 
ऊँची दीवारों के बीच.

...कैलाश शर्मा 

Friday 27 June 2014

जीवन

जीवन सतत संघर्ष
कभी अपने से
कभी अपनों से
और कभी परिस्थितियों से,
एक नदी की तरह
जो टकराती राह में
कठोर चट्टानों से
और बढ़ती जाती
लेकर साथ दोनों किनारों को 
अविचल आगे राह में
अपनी मंज़िल सागर की ओर.

आने पर मंजिल
खो देती अपना अस्तित्व
विशाल सागर में,
छोड़ देते साथ किनारे
लेकर सदैव साथ जिनको
की थी यात्रा मंजिल तक.

नहीं है रुकता समय
किसी के चाहने पर,
नहीं होती पूरी सब इच्छायें
कभी किसी जन की,
असंतुष्टि जनित आक्रोश
कर देता अस्थिर मन
और भूल जाते हम
उद्देश्य अपने जन्म का.


...कैलाश शर्मा 

Friday 20 June 2014

अनवरत यात्रा

सुनिश्चित है जग में
केवल जन्म और मृत्यु
पर कर देते विस्मृत
आदि और अंत को,
समझने लगते शाश्वत
केवल अंतराल को.

जब आता समय
पुनः बदलने का निवास,
सब भौतिक उपलब्धियां
और सम्बन्ध
रह जाते पुराने घर में,
होती यात्रा पुनः प्रारंभ
कर्मों के बोझ के साथ
जहाँ से हुई थी शुरू.


...कैलाश शर्मा 

Saturday 14 June 2014

"मैं"

मैं नहीं रखता अपने साथ 
कभी अपना "मैं",
घेर लेता था अकेलापन 
जब भी होता मेरे साथ 
मेरा "मैं".

बाँट देता सब में 
जब भी होने लगता 
संग्रह मेरे "मैं" का,
दूर हो जाता 
सूनापन अंतस का,
घिरा रहता सदैव 
हम से.

....कैलाश शर्मा 

Thursday 12 June 2014

स्व-मुक्ति

जब होने लगता
अहसास अंतर्मन को 
पाप और पुण्य,
सत्य व असत्य,
कर्म और अकर्म का,
रखने लगता है पाँव 
पहली सीढ़ी पर 
स्व-मुक्ति की.

...कैलाश शर्मा 

Wednesday 28 May 2014

जीवन और उपलब्धि

पैदा करो विश्वास 
स्वयं की शक्ति पर,
छुपी है तुम्हारे अन्दर 
चिंगारियां
अनंत संभावनाओं की,
प्रज्वलित करो उन्हें 
अपने विश्वास की 
हवा से.

ढालो अपने आप को 
ऐसे सांचे में 
गर्व हो जिस पर 
तुम्हें अपने जीवन 
व उसकी उपलब्धि पर.

....कैलाश शर्मा 

Thursday 24 April 2014

आत्म-विश्वास

पाने को अपनी मंज़िल
चलना होता है स्वयं 
अपने ही पैरों पर,
दे सकते हैं साथ 
केवल कुछ दूरी तक 
क़दम दूसरों के.

जुटानी होती है सामर्थ 
करना होता है विश्वास 
अपने पैरों पर,
नहीं रुकता कारवां 
देने को साथ 
थके क़दमों का,
ढूँढनी होती है स्वयं 
अपनी राह और मंज़िल
और बढाने होते हैं क़दम 
स्वयं मंज़िल की ओर.

....कैलाश शर्मा 

Thursday 10 April 2014

तलाश खुशियों की

लिये आकांक्षा अंतस में चढ़ने की 
खुशियों और शांति की चोटी पर 
करने लगते संग्रह रात्रि दिवस
साधनों, संबंधों, अनपेक्षित कर्मों का
और बढ़ा लेते बोझ गठरी का।
उठाये भारी गठरी कंधे पर 
पहुंचते जब चोटी पर
नहीं बचती क्षमता और रूचि 
करने को अनुभव सुख और ख़ुशी
गँवा दिया जीवन जिसकी तलाश में।

उठाते कितने कष्ट करने में संग्रह 
सुख सुविधा के भौतिक साधन  
लेकिन नहीं मिलती संतुष्टि,
जुट जाते हैं पुनः करने को पूरी 
नयी इच्छा नहीं है जिनका अंत,
नहीं निकल पाते जीवन भर 
इच्छाओं के मकड़जाल से 
और कर देते हैं विस्मृत 
ख़ुशी नहीं केवल उपलब्धि 
भौतिक सुविधाओं की,
यह है केवल एक मानसिक स्तिथि
जिसे पाते हैं समझ 
जब देर बहुत हो चुकी होती।

नहीं हैं अनपेक्षित कर्म
और न ही संभव छुटकारा उनसे
पर जब बन जाते हैं कर्म
केवल एक साधन पाने का
एक चोटी उपलब्धि की,
विस्मृत हो जाता आनंद कर्म का
और उपलब्धियां खो देती हैं अर्थ
पहुँचने पर चोटी पर.

रिश्तों और संबंधों को 
बनाते बैसाखी चढ़ने को 
चोटी पर सफलता की
और कर देते तिरस्कृत उनको 
सफलता के घमंड में,
पाते हैं खुशियाँ कुछ पल की 
और पाते स्वयं को अंत में 
सुनसान चोटी पर 
खुशियों से दूर और एकाकी।

साधन और सम्बन्ध 
दे सकते खुशियाँ 
केवल कुछ पल की,
खुशियों के लिये जीवन में 
ज़रुरत है समझने की अंतर 
क्या है आवश्यक और अनावश्यक 
साधन और संबंधों में।

जितना कम होगा बोझ कंधों पर 
होगी उतनी ही सुगम और सुखद 
यात्रा इस जीवन की।

कैलाश शर्मा 

Thursday 3 April 2014

वर्तमान

हर आती सांस 
देती एक ऊर्जा व शांति 
तन और मन को, 
जब निकलती है सांस 
दे जाती मुस्कान अधरों को.

हर श्वास का आना जाना ही 
है एक सम्पूर्ण शाश्वत पल,
जियो इस पल को 
विस्मृत कर भूत व भविष्य.

....कैलाश शर्मा 

Monday 31 March 2014

जय माँ दुर्गा

                  **नव संवत्सर और नवरात्रि की हार्दिक मंगल कामनायें**

जग जननी
हरो सब संताप 
ममतामयी.
****

माँ का हो साथ 
मिलता सब कुछ 
बिन मांगे ही.
****

आओ माँ दुर्गा 
दानवों का संहार 
भक्तों की रक्षा.
****

सदैव पास 
जब ठोकर खाता
थाम लेती माँ.

.....कैलाश शर्मा 

Monday 24 March 2014

शब्द

शब्द है ब्रह्म 
सभी अर्थों से परे,
शब्दों को देते हम अर्थ 
अनुसार अपने विचारों के,
शब्द है आईना 
हमारे व्यक्तित्व व भावों का.

शब्द देते जीवन 
शब्द देते प्रेरणा 
किसी को जीने की,
शब्द बन जाते 
कभी तीक्ष्ण कटार 
और देते घाव 
जो भरता नहीं कभी.

कसो शब्दों को 
अंतस की कसौटी पर 
अभिव्यक्ति से पहले,
मुंह से निकले शब्द
नहीं आते वापिस 
चाहने पर भी.

....कैलाश शर्मा 

Monday 10 March 2014

जीवन और मृत्यु

क्यों करते हो
प्रेम या वितृष्णा  
जीवन और मृत्यु से,
जियो जीवन सम्पूर्णता से 
हो कर निस्पृह उपलब्धियों से,
रहो तैयार स्वागत को
जब भी दे दस्तक मृत्यु.

रखो अपने मन को मुक्त 
भ्रम और संशय से,
पाओगे जीवन में 
प्रारंभ निर्वाण का 
और मृत्यु में अनुभव 
मुक्ति पुनर्जन्म से.

....कैलाश शर्मा 

Monday 24 February 2014

खुशियों का सागर

तलाश में खुशियों की 
करते संघर्ष जीवन पर्यंत 
और कर लेते एकत्र 
दुखों का ढेर जीवन में.

लेकिन की जब तलाश 
खुशियों की अंतर्मन में, 
पाया विशाल सागर 
अनंत खुशियों का 
जिससे था अनभिज्ञ  
साथ रह कर भी.

...कैलाश शर्मा 

Monday 17 February 2014

संतुष्टि

असंयमित मन
उठा देता सुनामी 
जीवन में,
उत्तंग लहरें 
असीमित इच्छाओं की 
बहा ले जातीं साथ
सुख और शांति,
छोड़ जातीं महाविनाश 
असंतुष्टि का.

कितना कठिन 
सामना सुनामी का,
केवल दीवार 
संतुष्टि और विवेक की 
रोक पाती लहरें
मन के सुनामी की.

....कैलाश शर्मा 

Sunday 9 February 2014

भाग्य

होता है निर्भर 
अस्तित्व और उपलब्धि 
हमारी तीव्र इच्छा पर,
जैसी होती है इच्छा 
तदनुसार होते प्रयास 
उपलब्धि को वैसे ही कर्म.

जैसे होते हैं कर्म 
बन जाता भाग्य वैसा ही.

....कैलाश शर्मा