Thursday 10 December 2015

अष्टावक्र गीता - भाव पद्यानुवाद (बीसवीं कड़ी)

                                      दशम  अध्याय (१०.१-१०.४)
                                            (with English connotation)
अष्टावक्र कहते हैं :
Ashtavakra says :

धन और काम अनर्थ के हेतु, त्याग करो तुम शत्रु समझ के|
तुम सब से विरक्त हो जाओ, इन दोनों का त्याग है करके||(१०.१)

Give up desires and wealth, which are your enemies.
Abandoning these two, be indifferent to everything. (10.1)

स्त्री, पुत्र, मित्र, धन दौलत, इनको क्षणिक स्वप्नवत मानो|
कुछ दिन का ही साथ है इनका, तुम केवल ये माया जानो||(१०.२)

Look at wife, son, friends and properties as
momentary dream. As these are only for a
short time with you, treat them as Maya. (10.2)

जिस जिस में आसक्ति मन की, कारण वह संसार का होता|  
वैराग्य गहन का आश्रय लेकर, इच्छा रहित सुखी है होता||(१०.३)

Wherever is your attachment, that is world. By
following this complete non-attachment, you
will be free from desires and will attain happiness. (10.3)

तृष्णा केवल बंध आत्म का, उसका नाश मोक्ष है होता|
हो करके आसक्तिरहित ही, चिर आनंद  प्राप्त है होता||(१०.४)

Desires are the bondage of Self. Moksha is
nothing but liberation from desires.
Non-attachment only may lead to permanent 
bliss. (10.4) 

                                           ....क्रमशः

....©कैलाश शर्मा 

17 comments:

  1. वाह सर बहुत ही बढ़िया ज्ञान वर्धक पंक्तियाँ है।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आभार!

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  3. बेहतरीन अनुवाद।अति सुन्दर।

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  4. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.12.2015) को " लक्ष्य ही जीवन का प्राण है" (चर्चा -2187) पर लिंक की गयी है कृपया पधारे। वहाँ आपका स्वागत है, सादर धन्यबाद।

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  5. उत्तम और सराहनीय रचनाधर्मिता.....

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  6. तृष्णा केवल बंध आत्म का, उसका नाश मोक्ष है होता|
    हो करके आसक्तिरहित ही, चिर आनंद प्राप्त है होता

    सत्य वचन..बोध दिलाती पंक्तियाँ !

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  7. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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  8. जिस जिस में आसक्ति मन की, कारण वह संसार का होता|
    वैराग्य गहन का आश्रय लेकर, इच्छा रहित सुखी है होता
    जीवन के इस मार्ग में इस तरह की जो पंक्तियाँ मिलती हैं वो भले ज्यादा परिवर्तन न ला सकें किन्तु मन को उद्धेलित होने से जरूर रोकती हैं !! बहुत सुन्दर और सार्थक पंक्तियाँ आदरणीय शर्मा जी

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  9. बहुत सुंदर और सार्थक

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  10. माया जाल में खो कर इन्सान फंसता चला जाता है । मोक्ष के लिए इन सब का त्याग जरुरी है । गीता अपने आप में अदभुद है। आपकी ब्लॉग ने सार्थक कर दिया । बहुत सुंदर ।

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